" 25 दिसम्बर दुनिया भर के लिये त्यौहार का दिन होता है,लेकिन उसी दिन सांता क्लॉज ने हमारे परिवार की खुशियाँ ही छीन ली थी। २५ दिसम्बर १९९२ मेरी मम्मी की दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। ये कविता उनकी पुण्यतिथि पर ही लिखी थी मगर त्यौहार का माहौल सोच कर पोस्ट नहीं करी। आज काफी समय बाद आप लोगो के सामने अपने शब्दों को पेश किया है,इसमें फ्रेमिंग पर ध्यान बिलकुल नहीं था बस एक बेटी की भावनायें है। " ..
मरासिम-ए-सुखन
ज़िन्दगी,यूँ ही काश मरासिम-ए-सुखन में गुज़र गयी होती, न दुनिया के तौर की फिक्र होती न, न तेरे हिज्र का ग़म होता.
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मम्मी
" 25 दिसम्बर दुनिया भर के लिये त्यौहार का दिन होता है,लेकिन उसी दिन सांता क्लॉज ने हमारे परिवार की खुशियाँ ही छीन ली थी। २५ दिसम्बर १९९२ मेरी मम्मी की दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। ये कविता उनकी पुण्यतिथि पर ही लिखी थी मगर त्यौहार का माहौल सोच कर पोस्ट नहीं करी। आज काफी समय बाद आप लोगो के सामने अपने शब्दों को पेश किया है,इसमें फ्रेमिंग पर ध्यान बिलकुल नहीं था बस एक बेटी की भावनायें है। " ..
चाँद का दर्द
अक्सर हमने शायरियों में अपने महबूब की तारीफ़ करने के लिए चाँद की उपमा देते हुए सुना और पढ़ा है,इतना ही नहीं जब दिल टूटता है तब भी राजदार चाँद ही होता हैं। अब हम तो अपना मन हल्का कर लेते है लेकिन चाँद की तकलीफें बढ़ जाती है,परेशान हो जाता है चाँद भी औऱ कुछ इस तरह अपनी तकलीफ बयां करता हैं -
शायरों की महफिल में
जब चाँद का आना हुआ,,
दर्द किया बयां चाँद नें जब
खत्म सबका सुनाना हुआ।
मैं हैरां हूं दर्द चाँद का सुनकर,
उसकी तकलीफों की वजह शायरों का हर तराना हुआ,,
चाँद ने कहा:
"क्या मैं ना होता तो इश्क़ मुक्म्मल ना होता तुम्हारा,
क्यों तुम्हारी हर नज्म में मैं ही निशाना हुआ।
यूं तो कुदरत में मौजूद हैं बला की खुबसूरती,,
फिर क्यों मुझ बेरंग का ही घर जलाना हुआ।
ना बना मुझे अपने इश्क़ और अश्क का गवाह,,
मैं तो खुद कभी आधा,कभी पूरा, कभी नदारद हुआ ।
ख्वाहिशें : माचिस की तीलियों सी
ख्वाहिशे मेरी सुलगने के लिये तैयार,
मगर माचिस की गीली तीलियों कि तरह कईं कोशिशो के बाद भी सुलग नही पाती,,
हाँ हर कोशिश के बाद थोड़ा बारुद जरुर झड़ जाता हैं।।
मगर माचिस की गीली तीलियों कि तरह कईं कोशिशो के बाद भी सुलग नही पाती,,
हाँ हर कोशिश के बाद थोड़ा बारुद जरुर झड़ जाता हैं।।
अब सवाल यह है कि, ये तीलियाँ भीगी कैसे,
ख्वाहिशे तो उष्ण थी फिर ये नमी कैसे,
जल भी ना पाया फिर बिन बारुद कि ये तीलियाँ कैसे।
ख्वाहिशे तो उष्ण थी फिर ये नमी कैसे,
जल भी ना पाया फिर बिन बारुद कि ये तीलियाँ कैसे।
होना तो यह था कि एक,दो कोशिशो के बाद ख्वाहिशें मुक्म्मल होती,
रोशनी होती माचिस की तीली से और जला लेती मैं चिराग,,
हुआ कुछ यूं के ना रोशनी हुई ना चराग जले।।
रोशनी होती माचिस की तीली से और जला लेती मैं चिराग,,
हुआ कुछ यूं के ना रोशनी हुई ना चराग जले।।
रोक दिये अब सारे प्रयास इस उम्मीद मे कि तीलियाँ सुख जायेगी समय की तपन से,
फिर जगमगायगे चिराग इन्हीं तीलियों से,
फिर जगमगायगे चिराग इन्हीं तीलियों से,
सवाल अब भी बाकी है कुछ, करूँ क्या इन बिना बारुद कि तीलियों का,
संभाल कर रखुं इन्हें डिब्बी मे या कि.........
संभाल कर रखुं इन्हें डिब्बी मे या कि.........
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विडम्बना
जो खामोश रहते है उनकी ख्वाहिशें भी खामोश रह जाती हैं।
राख के निचे दबी हुई आग,दबे दबे ही बुझ जाती है।
राख के निचे दबी हुई आग,दबे दबे ही बुझ जाती है।
छिन लि जाती है फुलो से रंग, खुशबू और पराग,,
बेनूर सी पत्तियाँ शाखों पर ही सुख जाती है।
बेनूर सी पत्तियाँ शाखों पर ही सुख जाती है।
इठलाती मासूम सी हर इक नन्ही तितली,,
शौक-ए-आदम में मसल दी जाती है।
शौक-ए-आदम में मसल दी जाती है।
अंधेरों मे ही अहमियत है चरागो कि,,
सुबह होते ही दीयों कि लौ बुझा दी जाती है।
सुबह होते ही दीयों कि लौ बुझा दी जाती है।
दोहन करना चाहते है धरा का,,और
रसायनों से यही धरा बंजर कर दी जाती है।
रसायनों से यही धरा बंजर कर दी जाती है।
सृष्टि कुकृत्यों के बोझ से जब अधमरी हो,,
तब प्रलय कि बाढ़ मे पृथ्वी डुब जाती है।
तब प्रलय कि बाढ़ मे पृथ्वी डुब जाती है।
आकाशगंगा
मन के ब्रह्माण्ड मे अनगिनत आकाशगंगा,,,,
सारी ओझल बस करीब एक,,,
समेटे खुद मे सुर्य,चँद्रमा,नक्षत्र और गृह.....
गृह कुछ उष्ण, कुछ शीत,
कुछ निर्जन,,,
गृह कुछ उष्ण, कुछ शीत,
कुछ निर्जन,,,
कोई आबाद तो कहीं संभावना जीवन की,,
कई शोध के बाद भी परीणाम केवल संभावना,,,,,
कई शोध के बाद भी परीणाम केवल संभावना,,,,,
कही कोई ब्लैक होल खिच लेता हैं खुद मे कई खुशियों को,कुछ सपनो को,,
सब कुछ समेट कर खुद मे करता है निर्माण नये गृह कि....
सब कुछ समेट कर खुद मे करता है निर्माण नये गृह कि....
कही कोई पुच्छल तारा छोड़ता नही धुधंली यादों को,,,
और साथ ही साथ रौशन भी है नये मार्ग पर....
और साथ ही साथ रौशन भी है नये मार्ग पर....
सजीव गृह भी गंभीर स्तिथीयो मे,,
बसंत के बाद झुलसा देने वाली उष्णता,,,
इस ताप के बाद धरा को इतंजार बरखा का,,,,
बरखा कभी तो शीतलता, हरियाली, जीवन लाती,,
बरखा कभी तो शीतलता, हरियाली, जीवन लाती,,
कहीं चीर देती है बादलों को और ले आती हैं तबाही,,
कभी मन का ज्वालामुखी फटता तो लावा करता फिर विनाश,,,
इन सब के बावजूद इक दंभ गृह को सजीव होने का,,,
अब नये गृह कि तलाश भी पिछे छुटी,,
तलाश अब इक और आकाशगंगा की....
इक नये चँद्रमा की,इक नये तारामंडल की,,,,,
Pachpan se bachpan
Zamaane ke iss shor me tum bhi wahi geet purana mat gana,
Tum khud aawaz ban apni ek saaz naya ban jana.
Jab bhi shaam dhalti dikhe tumhe din ki,
khud sooraj ban kar ek naya savera kar jana.
Jab samajhdaariyon ke bojh tale ehsaas tumhare dab jaayen,
kuchh pal rukna aur pachpan ko bachpan kar jana.
Or jab dil bhar aaye aankhen bhi namter ho jaayen,
mujhe koi aitraaz nahi, tum lagkar gale ashkon ki baarish ho jana.
ज़माने के इस शोर में तुम भी वही गीत पुराना मत गाना,
तुम खुद आवाज़ बन अपनी एक साज़ नया बन जाना।
जब भी शाम ढलती दिखे तुम्हे दिन की,
खुद सूरज बन कर एक नया सवेरा कर जाना।
जब समझदारियों के बोझ तले एहसास तुम्हारे डाब जाएँ,
कुछ पल रुकना और पचपन को बचपन कर जाना।
और जब दिल भर आये, आँखें भी नमतर हो जाएं।
मुझे कोई ऐतराज़ नहीं, तुम लगकर गले अश्क़ों की बारिश हो जाना।
" शक्ति का सशक्तिकरण "
अंतरास्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कुछ शब्द समस्त महिलाओ को समर्पित। ....
शक्ति के सशक्तिकरण की वजह क्या है,,,
क्यों भूल गई नारी खुद के अस्तित्व को,,
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सूर्य को दीया दिखाने कि जरूरत क्या है....
क्यों भूल गई नारी खुद के अस्तित्व को,,
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सूर्य को दीया दिखाने कि जरूरत क्या है....
क्यो भूल गई कि वो ही प्रकृति है,
जो सहेजती है चराचर जीव को,,
इक अंकुर की कोंपलो को,सींच कर अपने रक्त से,,,
रोपती है पादप इस धरा पर,निकाल अपने गर्भ से,,,,
. ..
जो सहेजती है चराचर जीव को,,
इक अंकुर की कोंपलो को,सींच कर अपने रक्त से,,,
रोपती है पादप इस धरा पर,निकाल अपने गर्भ से,,,,
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फिर भी इक माँ को वृद्धाश्रम की जरूरत क्या है,,,
नारी बिन कलाई सूनी भाई की,
नारी बिन ना रौनक पीहर की,,,
नारी बिन सूनी राहे भरतार की,
नारी बिन कौन करतार संसार की...
नारी बिन ना रौनक पीहर की,,,
नारी बिन सूनी राहे भरतार की,
नारी बिन कौन करतार संसार की...
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नारी बिना रिश्तों की परिभाषा क्या है,,,
सूर्योदय से आधी रात तक,
घर-दफ्तर में झोकें खुद को,,,
अबला उसे नाम देने का,
क्या हक है इस समाज को,,,
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आग को और जलाने के पीछे अभिप्राय क्या है,,,
घर-दफ्तर में झोकें खुद को,,,
अबला उसे नाम देने का,
क्या हक है इस समाज को,,,
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आग को और जलाने के पीछे अभिप्राय क्या है,,,
योजनाओं से बेहतर हो कि हम नजरिया बदले,,,
घर हो ऐसा कि बेटियाँ भी सांस ले,,
कहने को ही "पापा की परी " ना हो,,,
पिता हो ऐसे जो कहे "जा बेटी आसमां छुू ले",,,
सशक्तिकरण से ज्यादा जरूरी है कि,
बेटियाँ पहले जन्म तो ले,,,
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भ्रूण हत्या इस युग का प्रलय नही तो क्या है,,,
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